ईरान के विदेश मंत्री ने इस्तीफ़े की घोषणा की

ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है. ज़रीफ़ ने अचानक अपने इस्तीफ़े की घोषणा इंस्टाग्राम पर की. ईरान की सरकारी समाचार एजेंसी इरना ने ज़रीफ़ के इस्तीफ़े की पुष्टि की है.

उन्होंने सरकार में अपने कार्यकाल के दौरान हुई ग़लतियों के लिए माफ़ी भी मांगी.

ज़रीफ़ ने 2015 में अमरीका के साथ परमाणु समझौते के दौरान अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन बाद में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने इस समझौते को रद्द करने की घोषणा कर दी थी.

59 साल के ज़रीफ़ संयुक्त राष्ट्र में ईरान के राजदूत भी रहे और साल 2013 में हसन रूहानी के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद विदेश मंत्री बने थे.

ज़रीफ़ ने अपने इस्तीफ़े में ईरान के लोगों और प्रशासन का शुक्रिया अदा किया है, लेकिन ये नहीं बताया कि वह इस्तीफ़ा क्यों दे रहे हैं.

ज़रीफ़ ने इंस्टाग्राम पर पोस्ट में लिखा, "मैं अपने पद पर आगे नहीं बने रहने और अपने कार्यकाल के दौरान हुई ग़लतियों के लिए माफ़ी मांगता हूँ."

हालाँकि अभी ये स्पष्ट नहीं है कि राष्ट्रपति हसन रूहानी ने उनका इस्तीफ़ा स्वीकार किया है कि नहीं.

अमरीका के ईरान के साथ परमाणु समझौता रद्द किए जाने के बाद से ज़रीफ़ ईरान के कट्टरपंथियों के निशाने पर थे. समझौते के तहत ईरान को अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करना पड़ा था.

सोमवार को सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्लाह अली ख़ामनेई के साथ तेहरान में मुलाक़ात की थी, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक इस बैठक में ज़रीफ़ मौजूद नहीं थे. 2011 में सीरिया में शुरू हुए गृह युद्ध के बाद ये सीरिया की राष्ट्रपति असद की पहली विदेश यात्रा मानी जा रही है.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) ने पुलवामा हमले की निंदा करते हुए इसे 'जघन्य' और 'कायराना' अपराध बताया. उसने मसूद अज़हर के संगठन जैश-ए-मोहम्मद का ज़िक्र करते हुए ऐसे हमलों के लिए दोषी लोगों को न्याय के कठघरे में लाने की ज़रूरत बताई है.

सुरक्षा परिषद की ये टिप्पणी महत्वपूर्ण है क्योंकि वो कश्मीर को 'विवादित क्षेत्र' मानता है और इससे पहले उसने कश्मीर में हुए किसी भी चरमपंथी हमले में दखल नहीं दिया है.

सुरक्षा परिषद की टिप्पणी इसलिए भी अहम है क्योंकि भारत ने मसूद को अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी घोषित करवाने की कई कोशिशें कीं लेकिन चीन ने हर बार इसे वीटो कर दिया.लेकिन इस बार सुरक्षा परिषद के किसी अन्य सदस्य को कोई आपत्ति नहीं थी.

इसे भारत की कूटनीतिक जीत के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन दूसरी तरफ़ पाकिस्तान इसे अपनी जीत बता रहा है. उसका कहना है कि भारत की लाख कोशिशों के बाद भी सुरक्षा परिषद ने पुलवामा हमले के संदर्भ में पाकिस्तान का नाम नहीं लिया.

हालाँकि इसके ठीक एक दिन बाद पंजाब प्रांत के अधिकारियों ने बहावलपुर में प्रतबिंधत संगठन जैश-ए-मोहम्मद के मदरसे को अपने नियंत्रण में ले लिया. हालांकि पाकिस्तान के सूचना प्रसारण मंत्री चौधरी फ़वाद हुसैन ने साफ़ किया कि ये कार्रवाई पुलवामा हमले की वजह से नहीं की गई.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय दबाव में है? क्या ऊपर बताए गए फ़ैसले उसने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव में लिए हैं?

इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा ने इस्लामाबाद में इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी में इंटरनेशनल पॉलिसी के प्रोफ़ेसर और दक्षिण एशिया में सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ रिफ़ात हुसैन से बात की.

प्रोफ़ेसर रिफ़ात हुसैन कहते हैं कि अगर पुलवामा हमले की बात करें तो पाकिस्तान ने ख़ुद भी इसकी कड़ी निंदा की है.

उन्होंने बीबीसी से कहा, "अगर पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने के भारत के दावे पर आएं तो मुझे नहीं लगता कि ये सही है. अभी सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान पाकिस्तान में आए थे. 22 मार्च को मलेशियाई प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद भी पाकिस्तान आने वाले हैं और इसके बाद तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयब अर्दोआन भी पाकिस्तान का दौरा करने वाले हैं. इस तरह मुझे पाकिस्तान को दरकिनार करने वाले भारतीय दावे में दम नहीं लगता."

प्रोफ़ेसर रिफ़ात के मुताबिक़, "अगर सवाल ये है कि क्या पाकिस्तान डरा हुआ है तो पाकिस्तान सरकार ने साफ़ कहा है कि वो जंग नहीं चाहती क्योंकि जंग उसके हित में भी नहीं है लेकिन अगर उसके ऊपर कोई जंग थोपी गई तो वो उसका भरपूर जवाब देगी. मुझे नहीं लगता एक डरे हुए मुल्क की ज़ुबान ऐसी होती है या एक डरे हुए मुल्क का रवैया ऐसा होता है."

लेकिन चूंकि भारत में चुनावी माहौल क़रीब है और ऐसे में पुलवामा एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है, तो क्या मोदी सरकार इस मसले पर कोई ठोस कार्रवाई कर सकती है?

इसके जवाब में प्रोफ़ेसर रिफ़ात कहते हैं, "भले ही चुनाव क़रीब हैं लेकिन मोदी सरकार के पास विकल्प बहुत सीमित हैं. भारत को मालूम है कि उसकी तरह पाकिस्तान भी एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है और भारत को ये भी मालूम है कि जंग की शुरुआत करना आसान है लेकिन संभालना मुश्किल. दूसरी बात ये कि कोई भी फ़ैसला लेने से पहले भारत सरकार को देखना होगा कि उस फ़ैसले का उसकी छवि पर कैसा असर पड़ेगा. किसी भी छोटी सी चूक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आक्रामकता के तौर पर देखा जा सकता है."

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