लोकसभा चुनाव 2019: बीजेपी के सामने प्रचार में क्यों पीछे है सपा-बसपा

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन को भारतीय जनता पार्टी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन चुनाव प्रचार में बीजेपी के मुक़ाबले गठबंधन की उपस्थिति अब तक नगण्य सी है.

जहां तक भारतीय जनता पार्टी की बात है, तो मेरठ में रैली के साथ ही न सिर्फ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान की शुरुआत कर दी है बल्कि आगे भी उनकी कई रैलियां प्रस्तावित हैं और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा पार्टी के दूसरे नेता भी लगातार चुनावी सभाओं में व्यस्त हैं.

वहीं दूसरी ओर, गठबंधन की पहली चुनावी सभा सात अप्रैल को सहारनपुर के देवबंद में रखी गई है जहां पहले चरण में 11 अप्रैल को मतदान होना है. उससे पहले गठबंधन के तीनों दलों की न तो कोई संयुक्त सभा हुई है और न ही इन पार्टियों की कोई अलग चुनावी सभा कहीं प्रस्तावित है, जबकि पहले और दूसरे चरण के चुनाव के लिए नामांकन का भी सिलसिला शुरू हो गया है और टिकटों का बँटवारा भी लगभग पूरा हो गया है.

किसका प्रचार ज़्यादा ज़ोरदार
समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम साफ़तौर पर कहते हैं कि बीजेपी धुआंधार प्रचार इसलिए कर रही है क्योंकि उसके पास 'अथाह' पैसा है.

बीबीसी से बातचीत में नरेश उत्तम कहते हैं, "सपा और बसपा के कार्यकर्ता बूथ स्तर पर लोगों को मतदान के लिए जागरुक कर रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों और कार्यकलापों से अवगत करा रहे हैं. लोगों में इतनी नाराज़गी है बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ कि मतदाता गठबंधन को वोट देने का इंतज़ार कर रहा है."

नरेश उत्तम कहते हैं कि गठबंधन के नेता और कार्यकर्ता बूथ स्तर पर लोगों को जोड़ने का काम कर रहे हैं, बजाय बड़ी रैलियों के. नरेश उत्तम इसके लिए उपचुनावों का उदाहारण भी देते हैं.

वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में गठबंधन से बाहर रहते हुए अकेले चुनाव लड़ने का फ़ैसला करके मुक़ाबले को न सिर्फ़ दिलचस्प बना रखा है बल्कि अब तक के चुनावी शोर में भारतीय जनता पार्टी के बाद कांग्रेस की आवाज़ ही ज़्यादा तेज़ मालूम पड़ रही है.

प्रियंका गांधी के लगातार दौरे तो हो ही रहे हैं, आने वाले दिनों में राहुल गांधी और दूसरे नेताओं के भी दौरे और रैलियों के कार्यक्रम रखे गए हैं.

न सिर्फ़ बड़ी सभाओं और रैलियों के, बल्कि ज़मीनी स्तर पर भी गठबंधन के उम्मीदवारों का प्रचार बहुत धीमा दिख रहा है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि अखिलेश यादव नवरात्रि के बाद से ही चुनाव प्रचार में निकलेंगे, उससे पहले नहीं.

उनके मुताबिक, पहली संयुक्त सभा भी नवरात्रि में ही रखी गई है और उसके बाद ही राज्य के अन्य हिस्सों में भी संयुक्त रैलियां होंगी.

हालांकि बीएसपी नेता मायावती की उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य राज्यों में भी कई रैलियां प्रस्तावित हैं. मायावती नवरात्रि का इंतज़ार नहीं करेंगी और दो अप्रैल से उनकी ताबड़तोड़ सभाओं का सिलसिला शुरू हो रहा है. लेकिन शुरुआत उत्तर प्रदेश से नहीं बल्कि उड़ीसा से हो रही है.

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, मायावती डेढ़ महीने में क़रीब सौ सभाएं करेंगी. इस हिसाब से वो औसतन दो सभाएं रोज़ करेंगी. मायावती की पहली चुनावी जनसभा जहां दो अप्रैल को ओडिशा में होगी वहीं तीन-चार अप्रैल को आंध्रप्रदेश-तेलंगाना और पांच अप्रैल को नागपुर में सभाएं रखी गई हैं.

लेकिन समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव या फिर किसी अन्य नेता का कोई चुनावी कार्यक्रम सात अप्रैल से पहले नहीं दिख रहा है.

ये अलग बात है कि अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही बीच-बीच में ट्विटर के ज़रिए राजनीतिक बयानबाज़ी में ज़रूर शामिल रहते हैं लेकिन दोनों नेताओं ने अब तक अपने उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार जैसी कोई गतिविधि शुरू नहीं की है.

यही नहीं, गठबंधन के तहत बँटी सीटों और उन पर बार-बार बदल रहे उम्मीदवारों के कारण कार्यकर्ताओं में भी मायूसी है लेकिन कार्यकर्ता और नेता इस मामले में आधिकारिक रूप से कुछ भी कहने से बच रहे हैं.

समाजवादी पार्टी को लंबे समय से कवर कर रहे लखनऊ के पत्रकार परवेज़ अहमद कहते हैं कि इसकी वजह ये है कि दोनों दलों के नेताओं को राजनीतिक रणनीति का कोई ख़ास अनुभव नहीं रहा है.

परवेज़ अहमद के मुताबिक, "चाहे अखिलेश हों या मायावती, दोनों में एक समानता ये है कि इन्हें एक बनी-बनाई पार्टी ही नहीं बल्कि बनी-बनाई सरकार तक मिल गई. इन्होंने न तो ख़ुद कोई ख़ास चुनावी प्रबंधन किया और न ही उसमें दिलचस्पी ली. परिस्थितियां ऐसी रहीं और प्रदेश के राजनीतिक समीकरण कुछ ऐसे बने कि इन्हें सत्ता भी मिलती रही. ऐसे में दोनों के पास न तो अनुभव है और न ही वो इसका महत्व समझते हैं.''

''दूसरी बात ये कि इन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता पिछले तीस साल से एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ते आए हैं तो अब एक-साथ आना भी उनके लिए मुश्किल है. तीसरे, दोनों दलों में गठबंधन की औपचारिक घोषणा हुए दो महीने से ज़्यादा का समय बीत गया है लेकिन किसी तरह के समन्वय का कोई तंत्र अब तक नहीं बन पाया है."

परवेज़ अहमद की मानें तो इसका असर न सिर्फ़ कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ रहा है बल्कि चुनावी परिणाम में भी दिखने की पूरी संभावना है.

दोनों दलों की रणनीति और तालमेल में कमी का ही नतीजा है कि एक साल पहले गठबंधन करने वाली निषाद पार्टी ने ऐन मौक़े पर न सिर्फ़ गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी बल्कि एनडीए में शामिल भी हो गया.

जानकारों के मुताबिक़, इसका चुनाव परिणाम पर कोई असर पड़ता है या नहीं, ये दूर की बात है लेकिन एक मज़बूत और प्रभावी सहयोगी का साथ छोड़ देना रणनीतिक कमज़ोरी ही कही जाएगी.

जानकारों के मुताबिक़, दोनों पार्टियों में गठबंधन ज़रूर हुआ है लेकिन चुनाव प्रचार, सभाओं, रैलियों और चुनावी विज्ञापनों को लेकर दोनों पार्टियों में तालमेल का अभाव है और अब तक इन सबका कोई स्पष्ट तरीक़ा विकसित नहीं हो पाया है.

प्रचार अभियान नें देरी की वजह यह भी बताई जा रही है. दूसरी ओर, ज़मीनी स्तर और निर्वाचन क्षेत्र स्तर पर भी दोनों दलों के कार्यकर्ताओं और नेताओं में कई जगह न सिर्फ़ तालमेल का अभाव दिख रहा है, बल्कि संघर्ष की स्थिति भी है.

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, इन दोनों के नेताओं को ग़लतफ़हमी है कि बीजेपी से लोग नाराज़ हैं और उनकी नाराज़गी का फ़ायदा गठबंधन के उम्मीदवारों को ही मिलेगा, वो चाहे जिसे खड़ा कर दें, पर ऐसा नहीं है.

उनके मुताबिक़, "गठबंधन का ढीला-ढ़ाला प्रचार तंत्र और उनके नेताओं का रवैया न सिर्फ़ इन पार्टियों के ज़मीनी कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ रहा है बल्कि इन पार्टियों पर संदेह भी पैदा कर रहा है कि कहीं ये बीजेपी को फ़ायदा पहुंचाने की कोशिश में तो नहीं लगे हैं. और जिस दिन ये संदेश पब्लिक में पहुंच गया, बीजेपी से नाराज़ वोट कांग्रेस की ओर मुड़ने में क़तई देर नहीं लगेगी."

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