कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नाम पर एक क्यों नहीं होता विपक्ष?- नज़रिया
मसलन, 'क्या राहुल गांधी के नाम पर विपक्ष एकजुट हो सकता है? उनके नाम पर कई विपक्षी नेता सहमत नहीं हैं, फिर विपक्षी गठबंधन का क्या भविष्य होगा? क्या राहुल गांधी 2019 में प्रधानमंत्री मोदी के सामने टिकेंगे?'
ऐसे ज़्यादातर सवाल भाजपा और उसके शीर्ष नेता यानी प्रधानमंत्री मोदी की 'अपराजेय छवि' के बोझ से दबे नज़र आते हैं.
ये सवाल स्वाधीनता-बाद की भारतीय राजनीति के संक्षिप्त इतिहास को भी नज़रंदाज करते हैं.
विपक्ष ने कब एक 'सर्वस्वीकार्य नेता' की अगुवाई में लोकसभा चुनाव लड़ा? संसदीय चुनावों में जब कभी विपक्ष, ख़ासकर गैर-भाजपा अगुवाई वाले गठबंधन या मोर्चे को कामयाबी मिली, उसके नेता यानी भावी प्रधानमंत्री का चयन हमेशा चुनाव के बाद ही हुआ.
विपक्ष में नाम तय करने की परंपरा
किसी एक नाम पर पहले से कभी सहमति नहीं बनी या उसकी ज़रुरत नहीं समझी गई.
आज़ादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस सत्ताधारी रही, इसलिए उसके संसदीय दल द्वारा निर्वाचित नेता प्रधानमंत्री होते थे.
व्यावहारिक तौर पर उनकी अगुवाई में वह अपना चुनाव अभियान चलाती थी. लेकिन विपक्ष द्वारा पहले से नेता की घोषणा कभी नहीं होती थी.
विपक्षी खेमे में इसकी शुरुआत भाजपा ने ही की, जब उसने अपने तत्कालीन नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करना शुरू किया.
फिर उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया. लेकिन 2004 के संसदीय चुनाव के वक्त जब कांग्रेस विपक्षी खेमे में थी, उसने प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार की घोषणा के बगैर ही चुनाव लड़ा.
वाजपेयी के सामने मनमोहन सिंह
तब सत्ताधारी खेमे की अगुवाई अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता कर रहे थे. उनके पास 'शाइनिंग इंडिया' का आकर्षक नारा भी था.
पर विपक्षी खेमे ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बगैर वाजपेयी-नीत एनडीए को सत्ता से बेदखल कर दिया.
यूपीए की बैठक में गवर्नेंस का एजेंडा तय हुआ. चुनाव नतीजे से साफ हुआ कि कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी.
किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. नव-निर्वाचित कांग्रेसी सांसदों ने सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का नाम तय किया.
लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इनकार किया. उ
नकी इच्छानुसार कांग्रेस संसदीय दल ने नाटकीय ढंग से जब डॉ. मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना तो यूपीए के अन्य घटकों ने भी उन्हें अपना समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनाया.
ऐसे ज़्यादातर सवाल भाजपा और उसके शीर्ष नेता यानी प्रधानमंत्री मोदी की 'अपराजेय छवि' के बोझ से दबे नज़र आते हैं.
ये सवाल स्वाधीनता-बाद की भारतीय राजनीति के संक्षिप्त इतिहास को भी नज़रंदाज करते हैं.
विपक्ष ने कब एक 'सर्वस्वीकार्य नेता' की अगुवाई में लोकसभा चुनाव लड़ा? संसदीय चुनावों में जब कभी विपक्ष, ख़ासकर गैर-भाजपा अगुवाई वाले गठबंधन या मोर्चे को कामयाबी मिली, उसके नेता यानी भावी प्रधानमंत्री का चयन हमेशा चुनाव के बाद ही हुआ.
विपक्ष में नाम तय करने की परंपरा
किसी एक नाम पर पहले से कभी सहमति नहीं बनी या उसकी ज़रुरत नहीं समझी गई.
आज़ादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस सत्ताधारी रही, इसलिए उसके संसदीय दल द्वारा निर्वाचित नेता प्रधानमंत्री होते थे.
व्यावहारिक तौर पर उनकी अगुवाई में वह अपना चुनाव अभियान चलाती थी. लेकिन विपक्ष द्वारा पहले से नेता की घोषणा कभी नहीं होती थी.
विपक्षी खेमे में इसकी शुरुआत भाजपा ने ही की, जब उसने अपने तत्कालीन नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करना शुरू किया.
फिर उसने 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया. लेकिन 2004 के संसदीय चुनाव के वक्त जब कांग्रेस विपक्षी खेमे में थी, उसने प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार की घोषणा के बगैर ही चुनाव लड़ा.
वाजपेयी के सामने मनमोहन सिंह
तब सत्ताधारी खेमे की अगुवाई अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता कर रहे थे. उनके पास 'शाइनिंग इंडिया' का आकर्षक नारा भी था.
पर विपक्षी खेमे ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बगैर वाजपेयी-नीत एनडीए को सत्ता से बेदखल कर दिया.
यूपीए की बैठक में गवर्नेंस का एजेंडा तय हुआ. चुनाव नतीजे से साफ हुआ कि कांग्रेस की अगुवाई में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी.
किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. नव-निर्वाचित कांग्रेसी सांसदों ने सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का नाम तय किया.
लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इनकार किया. उ
नकी इच्छानुसार कांग्रेस संसदीय दल ने नाटकीय ढंग से जब डॉ. मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना तो यूपीए के अन्य घटकों ने भी उन्हें अपना समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनाया.
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